yatra

Wednesday, December 10, 2008

तीन ghante

तीन घंटे बजे तो ध्यान गया रात के ३ बज चुके हैं ,और इस सोफे पर बैठे बैठे मुझे तक़रीबन साढे चार या पाँच घंटे हो चुके हैं ।

मैं बहुत कुछ सोचता हूँ .बोलता भी हूँ मगर ...

आँख भर आती है जुबाँ तालू से सिल जाने के बाद

और हसरत पूंछने वाला कोई नहीं .पा के अपने पास... मैं

बाहें पसरे daudta हूँ भागता हूँ बे हिसाब ,

छोड़कर ख़ुद को चला जाऊँ कहाँ ...

नींद आजाये जहाँ......

तीन ghante

Friday, December 5, 2008

बहुत कुछ soach ta hun

लगभग एक महीने से जादा गुजार कर आया हू वैसे कोई बड़ा काम नहीं किया इन दिनों पर बड़ा काम किए बिना एक महीना गुजार देना मुझ जैसे के लिए एक बड़ा काम ही है ।
हर रोज़ लम्हों मैं खताएं करते रहना और......
.... घंटों मैं पछताना ही मेरी अपने लिए पहचान है
गोया ....
चाँद पे थूक कर मुहं पोछना ...जैसे
.. धोका खा कर समझ आना की धोका फ़िर हुआ है .....

रात कोहरे मैं घिरी तो याद आया ...
चाँद तारे रौशनी और चांदनी
gungunahat जिस्म की और अनसुनी
वो सदायें आपसी , घुलमिल गयीं
हाँथ थामे उँगलियों की कसमकस को
पाओं से मैंने टटोला आपको
और एक uljhan भरी dopehar से तुम ...
हो कहाँ, रहकर यहाँ , कुछ तो बताओ
पास बैठो ,मुस्कराओ , गुनगुनाओ

Friday, November 7, 2008

मुकम्मल था कभी मैं ....

एक दुनिया थी मेरे सामने ,
एक चारागार था ,
हसरत थीं मेरे दिल में.. बहुत ऐतबार था,
सब कुछ मैं पाया करता था सफों में, किताब में ,
डूबा नहीं था तब तलक दुनियावी अजाब में ,
मैं खुशमिजाज था , बहुत अहले कमाल था,
औरों के लिए मैं एक हंसती मिसाल था ,,
मैं बुन्लिया करता था अक्सर khushfamiyon के जाल ,
और नज़रों मैं अपनी रखता था पैगम्बरी ख्याल ,
धोखे का नाम जानता ना मक्कारियों की चाल,
मेरे जेहन को छेड़ते थे मखमली ख्याल ,
एक रौशनी सी देखता था हर सुबह में मैं ॥
और चांदनी संभाल ता था दस्तरस मे मैं..
लेकिन तुझे ऐ जिंदगी किसकी नज़र लगी ..
lekar के चन्द नोट क्यूँ ..... तू गई ठगी
सब कुछ दिया तूने .. मगर अपने हिसाब से
सफे शुरू के फाड़ दिए .. क्यूँ किताब से ॥
sumati



Monday, September 29, 2008

बे ख़बर

जिंदगी दर्द-ऐ-लबादा है हम न समझे थे
go ya सहेज के क्यूँ रखते इस पैराहन को ।
जब भी रात की उंगलिया चाँद के सिराहने कुछ टटोलती हैं.... तो टूटे हुए तारे हाँथ से सरक कर गिर पड़ते है ये तारे ..,,,...मानो हमारे अरमान ,,,...जो कभी चलते फिरते और उम्मीद से भरे होते ...जैसे दौरे बदगुमानी में आखिरी safe का koi मुग़ल बादशाह किसी मोजज़ा का इंतजार करता था और bar- bar zillat से takrata था ..वैसे ही en armano ने भी dam toda और तारे बन गए ..... और नींद उठा कर फिर वहीं चाँद के सराहने रख देती है उन तारों को ..मैं नींद में कहाँ तक और कब तक rahun ... tiragi कब तक रहे ....चाँद की roshni में khwab की faslon के pakne का entzar कब तक करूँ ...जो khurshid mukhalif है तो मैं कहाँ जाऊँ .....
कद उसका kaba से बड़ा हो गया
जो सड़क पे unghara खड़ा हो गया ...
ये तारे तो chhup के रात के अंधेरे मैं timtimaate हैं खुल कर सामने नहीं आते ये मेरे अन्दर ander बढ़ते हैं मेरे जिस्म को phadte हैं .....और कोई बे ख़बर sota है ...

Thursday, September 11, 2008

बस यूँ ही यहाँ आकर व्यस्तता का रोना ठीक नहीं लगता । हर आदमी काम धंधे से लगा है .लेकिन हम जैसे अव्यवस्थित व्यक्ति को तो समय का रोना जिंदगी भर रोना है.बस एक काम के पीछे पड़ कर सारा समय उसी में बिता देना और बाकि काम छूट जाना हमेशा से रहा है ..और कितना भी कोसो अपने आप को लेकिन ...सुधार कहाँ...किस का नाम है... वो जो यहाँ आते हैं रोज़ एस उम्मींद में की शायद में कुछ कहूँगा वे भी बहुत व्यस्त हैं मुझ से ज्यादा महत्वपूर्ण भी लेकिन क्या है ....कल फिर वैसा ही मुझे हो जाना है शायद इसीलिए दिन रात यात्रा में रहता हूँ ...सजा है मेरी ....मेरे लापरवाह होने की ...हमेश से फैला -फैला..... बिखरा -बिखरा ..में अपनी सजा के साथ ...

बुहारता हूँ ...
हर रोज़ ..कुछ ...
शायद
जिंदगी को॥
मगर ... हताश हवाएं
बिखेर देती है ....
कायनात मेरी...

यात्री

Sunday, August 31, 2008

pawan

pawan ,

आज से करीबन दस साल पहले एक महिला मित्र ने मेरे लिए एक पोएम लिखी थी पता नहीं आज वो कहाँ हैं .....लेकिन उन लाइनों में मेरे प्रति उनका उत्कट विश्वाश झलकता है ..आज भी मैं उस बात के लिए ..मै एक अहसास जो ..अव्याकृत है ..रखता हूँ और शायद उनका मेरे प्रति ये आग्रह ....मैं समझता हूँ ....पूरा सच नहीं कहता ...और मैं उस पर शायद ,आधा अधुरा भी, खरा नहीं उतरा....लेकिन ..पवन आज जब तुम मसूरी के रस्ते में होगे तो वे ही लाइने मैं तुम्हे सुनाना चाहता हूँ ...मैं तुम्हे सुनाना चाहता हूँ ॥(.. maaf करना दे नहीं सकता )..पर उन लाइनों पर तुम खरे उतरोगे...क्यूंकि....मेरा manna hai

जब जीवन कट गया रात...

ही रात में ...तो ...

तो देखता हूँ ...

भोर होने को है ...तुम्हारी देहलीज पर...

हो सके तो वरन करलो

मेरे ऐसे स्वप्नों को ....

जो पुरे हों सकें तुम्हारे जीवन के ...

प्रभात में ....

ये तो मैं कह रहा हूँ और इसीलिए अपने मित्र की वो लाइने मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ-

तुम को देख कर /मुझे सूझती है

सागर की एक उत्ताल तरंग ,

बाँध सकेगा न जिसे कोई

जो सदा ही बढेगी आगे

चीर कर अन्नंत जलराशि .

तुम्हें देखकर /मुझे सूझता है

प्रथ्वी के आँचल मैं ऊँघता

एक अंकुर , kun bhunata sa ...

ऊँचे गगन को जो चूमेगा

गहरे कहीं धरती से जुड़ कर भी.... ।

खुशियाँ tumhara साथ न chhoden esi दुआ के साथ ...

sumati

Sunday, August 24, 2008

takkila

मैं मैकदे की राह से हो कर गुज़र गया ,
वरना सफर हयात का काफी तवील था ।

यूँ तो मैं पीता नहीं हूँ लेकिन यकीन के साथ ,और बड़े इत्मिनान के साथ भी , कह सकता हूँ की मुझे नशा हर वक्त रहता है और इसी नशे मैं जिंदगी का लंबा सफर कट ता जा रहा है ...नशा राज भाटिया साहब के भाई के पड़ोसी को भी था वो ये की विदेसी शराब पियें गे तो शायद विदेशी नशा हो .....और हुर्रें भी विदेशी ही मिलेंगी उस नशे मैं ...सो वो विदेशी शराब के चक्कर मैं कई चक्कर भाटिया साहब के भाई क यहाँ लगा आए ...हम अपने ही चक्कर काटे पड़े हैं हम पर हमारा ही नशा चढा हुआ है ....और ये भूल गए की ...
चमन मैं मुख्तलिफ रंगों से बात बनती है
हम ही हम हैं तो क्या हम हैं .....तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो

तो इस नशे का इलाज किसी शफा मैं नहीं है किसी दुआ मैं नहीं है ...हर इंशान की फितरत ये है की उसने ही आसमान मैं छेद करना जाना है बाकि सब तो राम भरोसे चल रहा है । तो अपने होने का नशा मुझ पर भी तारी है ..इसी नशे मैं मैंने इतनी यात्रा कर डाली है और पता नहीं कितनी करनी है पर इस नशे से मेरा दिल घबराता है ..
takkila पीना कहीं बेहतर है वो नशा मुश्तकिल नहीं है .... आज की बहकी बहकी बातों के लिए दोस्त माफ़ करदेना शायद होश मैं आगया था जो ये बात कह बैठा कल सुबह सोकर उठूँगा तो फ़िर नशे मैं दुनिया JEETNE के प्लान नाश्ते की MAEJ पर बैठ कर बनाऊंगा और शायद आप भी नशे मैं उस वक्त होंगे aur दुनिया जीतने
निकलने को होंगे.. aayen तब तक होश की बात सोचें....अपने से बहार की सोचें

YATRI नशे मैं नहीं है (जोर देकर कहना है )

Sunday, August 17, 2008

दो दिन .....

दो दिन गुज़रे ... हम ऐतबार मैं थे
...किसी सबब से दुनिया की सब balayen
अपने अपने दडबों को कूच करगयी हैं...और इत्मिनान इस बात का है की हम से साथ चलने ki जिद्द भी नहीं की ....वे यूँ गयीं की लगता था पलट कर मुंह न देखेंगी हमारा .लेकिन ..फ़राज़ का वो शेर यहाँ सटीक लगता है.....

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ,
आ फिर से मुझे छोड़कर जाने के लिए आ ।
......हम उन्हें ख़ुद सदा देते हैं
(और फिर ठीक वैसा ही लगने लगा जैसा फ़राज़ ने इसी ग़ज़ल के अगले शेर मैं लिखा है.....)

एक उम्र से हूँ लज्ज़ते-गिरया से भी महरूम,
ए राहते- जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ ।

तसल्ली बख्श उम्र का दौर बस कभी का guzar चुका लगता है ....भाग दौड़ की इस ज़िन्दगी मैं दो दिन निकल भी आयें तो फिर फितरत ही ऐसे बनगई लगती है की वापस फिर उसी ज़िन्दगी के भाड की तड़प सताने लगती है जहाँ बालू की तपिश मुझे चने की तरह उछाल-२ के भाड़ से बाहर भागने को मजबूर करती है और मेरी किस्मत ,मेरी नियति फिर उसी बालू mai पटक देती है । १४,१५ मेरे hisab से कुछ behtar दिन thai .....खाने और sone को rasm adaygi की तरह न करके अपने hissab से किया .कुछ aalu जो uble हुए frij मैं पड़े thai और khatta mattha जो almost bekar ही था pattni जी ने मेरे disposal per छोड़ दिए .मैंने matthe के aalu बनाये और बड़े प्रेम से खाए भी...अगले दिन देर से jage होने के bavazud देर तक बिस्तर per पड़ा रहा.edhar से udhar lotta रहा। अगले दिन कुछ मित्रों से mulakat ,जो zindgi के vyapar मैं sundry creditors की तरह हो गए हैं , की । बस फिर vahi ..........kashmakash भरी ....per अभी तो लम्बी duri tai होनी है sazo saman की hifazat मैं sara वक्त jaya kardene मैं hoshiyari कहाँ manta हूँ .....per होता jaya ही है। मेरे अपने nazariye से बिल्कुल beza hai

ज़िन्दगी यूँ तो हमेशा से pareshan si थी,
अब तो हर साँस girabar हुई jati है ।

बस दो दिन ही guzre हैं की लगता है की वो... "दो दिन" meelon pichhe chhut गए हों ojhal होते दिखाई daete
हैं......

yatra के padav ...अभी और भी

Saturday, August 9, 2008

खुराफात का दफ्तर

शायद ये आप की नज़र मैं हमारी दिक्कत ही तो है जो मिटने मिटाने की बहस से हम आगे की नहीं सोच पाते hain . par शायर कहता है-
" वो अलग बाँध के रखा है ,जो माल खास है "
मैं वोही पोटली यहाँ खोल के बैठा हूँ । ये खास है । मैं खुश हूँ जिन्होंने मेरे दुख, दिक्कत तकलीफें बाँटनी हैं वो यहाँ आते है बार -बार .लगातार । जिन्हें मुझ से सुख चाहिए उनको इन तकलीफों से न सरोकार है न होना चाहिए न उन्हें मैंने यहाँ कभी बुलाया न यहाँ का पता दिया । मेरे चंद अपने जो इस यात्रा के दौरान बनगए हैं मेरे लिए उनसे बात करना ,मेरी यात्रा के मुक्कमल होने जैसा है .रही बात दुःख से सुख की या बिगड़ने के बाद बनने की तो जो मुझ से बन pada है वो दुनिया देख रही है .और जो मैं बिगाड़ के बैठा हूँ उसे तुम ही देखो....... मेरे साथी यात्री ।

इस खुराफात के दफ्तर मैं हर किसी की दाखिली पर मुझे गुरेज़ होगा

हो सके तो किसी अजनबी को यहाँ का पता भी न देना ....मैं क्या कहूँ ....बस इतना ही
"कोई चुटकी सी कलेजे मैं लिए जाता है ,
हम तेरी याद से गाफ़िल नहीं होने पाते ।

ठीक है न दोस्त ग़लत हो तो फ़िर टोंको ।
सुमति

Thursday, August 7, 2008

पुनश्च तोरा-डोरा मैं

आज फ़िर रात ३ बजे ये अचानक चलदेना पड़ा रास्ता कठिन था पर बैचेंनियाँ कदम टिकने कहाँ देती हैं .३.३४० पर एक कप चाय पीने के बाद यहाँ आगया इधर उधर करने के बाद बस लिख ने बैठ गया पौ फटने तक लिखते ही रहने का इरादा है या यूँ कहें की सफर जारी रहेगा । कोई कैसे समझ ये जो मुझे होने नही देती वो तलाश की बेकरारी क्या है ....मैं तालिबान नहीं बनानेवाल ....पर अपनी दुनिया का लादेन जरुर हूँ ...जैसे चाहूँ वैसे बरबाद करने का जूनून हावी रहता है ...बर्बाद होने का भी॥ सुबह हो रही है ४.४५ हो चुके हैं दुनिया जगे ...लादेन को फ़िर पेन शर्ट पहनकर आदमी बन के दुनिया के बीच आना होगा ......इस लादेन की ये भी तो एक दिक्कत है ......वो लादेन किरदार तो एक ही है ......यहाँ कितने किरदारों में, मैं बनता हूँ

मैं सोभी जाऊँ रातों मैं

लेकिन तू है की मुझ मैं सोता नहीं है

Monday, August 4, 2008

खुन्नस

आज झरस मैं दिन भर एक जगह बैठे बैठे यात्रा की ,और बस कुछ नहीं... कभी -कभी मन अपने आप से पैरों मैं ऐसी बेडियाँ बाँध लेता है की उनका वज़न देख कर ही पैर उठाने के हौसले पस्त हो जाते हैं .ये मेरा मन ख़ुद से करता है .कोई और कहे तो शायद ..कभी न माने ...बस ..आज भी यही हुआ सुबह उठकर मन ने विरोध कर दिया की आज नहाना धोना नही है और ये क्या रोज़ रोज़ के अहदे सितम हैं की हमें कुल्ला करना ही है ,नही करते जाईये हम बास मारेंगे आपकी दस बार फंसे तो हम तक आइये ...हम अपने आप से बरहम है ...जरुरी नही की हम इसका तस्किरा करें...हम ने कहा न आज दुनिया पे एहसान करने का दिल नहीं है ....तो इस झरस में कलम से सफर शुरू करदिया जो दातुन से होता था ....बज़ाहिर है की ये सफर इस से ज्यादा तल्ख़ क्या होसकता था---

निगाहे प्यार से देख तुम्हें दिलकश नजारों ने

मुझे नफरत से देखा आसमान के सारे तारों ने।

हजारों अफ्ताबों से तेरा रोशन जहान होगा ,

यहाँ बज्म-ऐ-चिरागां फूँक डाली है हमारों ने ।

बहुत ही मुस्तकिल अंदाज़ में हम क़त्ल होते हैं,

कहाँ गर्दन बचा पाई मोहब्बत के शिकारों ने।

तुम्हारा नाम लेकर आसमान तारीख गढ़ता है ,

दिए हैं हम को तो बस क़र्ज़ मांझी के उधारों ने ।

तुम्हारी नज़्र के काबिल कहाँ वो चार लम्हे thae ,

chhupa rakkha hai अरसे से जिन्हें दिल की दरारों ने।

आज बस इतनी ही खुन्नस है...और आप अपनी खुन्नस निकालना चाहें तो ऊपर लिखी लाइनों पे निकालें तब तक मैं कुल्ला करके आता हूँ॥

यात्रा अमर रहे।

भले यात्री जान से जाए ..

Friday, August 1, 2008

अपने रंग गंवाए बिन ..

क्या कभी ऐसा भी होता है जब हम अपनी पहचान दूसरे मैं जज्ब करके मिटा देते हैं और उसे ही अपनी मंजिल मानकर जिंदगी का सफर पूरा करते हैं ......उसी के साथ .......ये दूसरा कोई जिस्म भी हो सकता है ..और मकसद भी ।
....(मैं यहाँ आकर कुछ रूमानी हो जाऊँ तो क्या कोई ऐतराज़ होगा ...शायद ऐतराजों को दर किनार करने ही तो यहाँ हम आते हैं वरना हमारी शोहरत ,कामयाबी,और अच्छाइयों पर तो हक जताने वाले कई है....... और हमारी हसरतों पे ऐतराज़ रखने वाले ....और भी कई । मैं ऐसे फलसफों पर सोचता हूँ जिन पर वहां नहीं सोच जासकता जहाँ मैं रहता हूँ। जहाँ देह रहती है ...रूह पर बोझ बनकर )...
मेरे रंग मैं घुल जाओ....॥ हरहाल में तुम तुम ही रहो ...मैं ,मैं भी रहूँ ..........क्या इस तरह मुमकिन है...... रामानुजम के विशिष्ट अद्वैत वाद की तरह ....मैं डुबाता हूँ अपने आप को उस में जिसे मैं पाना चाहता हूँ बचपन से भी यही फार्मूला दिया गया है ..परकुछ रह जाता है जिसे मैं खोता हूँ और वो मुझे खोता है .... मेरा अपना aksh ....duniya dari के ghal male में ......जिसे pane के लिए यहाँ आता हूँ .....और पाता भी हूँ ....कुछ दलीलें ... मेरे टारगेट्स और मेरी ख्वाइशें कैसे हम होंगे ..........है कोई .....रास्ता......

सफर को तैयार

सुमति

Wednesday, July 30, 2008

तखलिया

पता नहीं कौन सी' की' दब गई और पुरी इबारत ही मिटा के रख दी .......यूँही कभी -कभी जिंदगी मैं भी होता है हम पता नहीं किस झोंक मैं क्या कर बैठते हैं और एक नई कहानी बनके सामने आती है। कहानी यूँ कि.. भोगने वाले के लिए तो वो यातना या जो कुछ है लेकिन सुनने वाले के लिए एक किस्से से ज्यादा कुछ्भी तो नहीं ........तभी मुझे अपने कुछ ऐसे दोस्त अच्छे लगते हैं जो लबों पर अपने जीवन की यातना आने ही नहीं देते सदैव प्रस्सन .....

हाँ मैं जो लिखते लिखते मिटा बैठा उसे याद कर के फिर लिखने कि koshish करता हूँ .....

जब कभी मैंने अपने दास्ताँ-ऐ-गम से कहा तखलिया ...तो वो और ज़ोर से मेरे सीने से चिपक गई ...सैकडों बिच्छू जैसी जीवन कि कहानियाँ....ये कहानियाँ ही हैं तुम्हारे लिए मेरे दोस्त ..क्यूंकि यदि मैं तुम से इन्हें सच मानने केलिए कहूँ तो शायद हमारी दोस्ती मैं बल पड़ जायें ...मैं किसी बादशाह कि तरह हुक्म उन्हें कैसे दे सकता हूँ । सफर मैं बिस्तरबंद के बोझ कि मानिंद उन्हें ढोता हूँ । क्यूंकि मुझे नींद नहीं,ख्वाब नहीं, आराम नहीं चाहिए ,मेरे सफर का बोझ ,मेरा बिस्तरबंद ,जो चारागाह है मेरे ग़मों का ...साथ रख कर मैं यात्रा करता हूँ ....और सोचता हूँ कि तुमने कैसे सिख लिया हँसते हुए जीना ..हो सके तो मुझे भी वो फलसफा दो मेरे दोस्त .....ताकि मेरे तःक्लिया कहते ही ये सब मुझे एकांत मैं छोड़ दें .....मैं मुस्करा सकूँ तुम्हारी तरह दो चार गम होने के बावजूद ...

यात्री (उबन मैं )

Tuesday, July 22, 2008

raston मैं rahten deewar हैं..

i was posting a comment on my friends blog mean while these lines came at the tip of my fingers later i brought them through pen tip and.. tried to fit kafia ....in it ...you have full right to correct it ....

माना बहुत हम तेज हैं तर्रार हैं ,
पर पर कतरने को सभी तईयार हैं

किस tarha guzren .यहाँ सब kharzad हैं raste।
हम सोचते रहते हैं , शायद सोअच से bimar हैं .

रास्तों से हम बहुत jhagda किए हैं
रास्तों की राहतें , दीवार हैं.
रहबरों से हम बहुत शिकवा किए हैं
रहजनों से हम बहुत होशियार हैं .

तुम ज़फा का moldoge किस tarha
हम akele ही यहाँ khuddar हैं .

dhundh layenge वहां कुछ mushkilen
दोस्त lutne को jahan तैयार .

तुम bichhao , odhlo या बेच दो
हम ख़बर के lothde akhbar hain हैं

turbaton (kabra) मैं halchalen हैं
but बने ये आदमी bekar हैं।


correction jaroori hoto करें...baki apki हुई ये जो कुछ भी है

sumati

Rear Gear

Today is 22nd July ...a very important day ...full of expectations..for someone...years i passed without remembering this date..but a torch bearer ..or. today someone interrupted the silence of past and i don't know why she started this yatra without taking my consent ....and faced...what one doesn't deserve..some times we run like not to get a target but to get rid off our past...her birthday is the day ..i remember it just to learn more from life ...where we travel ..in our own assumptions ..we leave which was ours and we run behind which can never be..for us...they who know me ,can say i did wrong or right but as a blog reader you will find it a roar of empty bowl ...i could not decide the direction of tour of life....all is decided by time....i wish happy birthday to you ...you were my friend ....i wish if you were friend to me . we could have brought us up to today as friends....but you desired that which i could not afford...i'll always have pain for that...

sumati

Friday, July 18, 2008

कुछ दूर पगडण्डी पर

जीवन जैसे मनो highway पर चल रहा था ,हर पल दुर्घटना की आशंका और मानो बार बार पैर ब्रेक पर नही accilator पर पड़ जाता हो .बस बचते जाने के वावजूद चलते जाने की हवस क्या मतलब रखती है मालूम नहीं ....बरसात के दिनों मैं यात्रा और भी दुष्कर होती है सभी गुनी जन जानते हैं सिवाए मेरे ...लेकिन अछानक जिस तरह घर की पगडण्डी पर आने का सुख मिलता है ही .....लग रहा है ....कोई ठीक ठीक वजेह तो नहीं मालूम पर .......यात्रा ,....पर जीवन एक जैसा नहीं चलता ...अपने लोगों का concerned हो जन घर आने से कम नहीं महसूस होता पग्दन्दियुओ की यात्रा राजपथ से कहीं सुरक्च्चित.सकुंदायक होती है । पर मिलता ही नहीं इन पगदंदियुओं पर चलने को ..........कभी ...


सुमति वापस अपने ( शायद ) घर से

Tuesday, July 15, 2008

तोरा-डोरा

लखनऊ .प न रोड


ये वो पहाडियां हैं जिन्हें दुनिया ने बिन लादेन के पर्याय के रूप मैं देखा है .मित्र देशों की सेनाओं से बच ता बचाता लादेन इन्ही रेतीली पहदियन मैं सफर करता है आज क्यूँ याद आता है मुझऐ शायद एक रात की यात्रा जो मई करता हूँ हर रात मैं जो यात्रा उतनी ही कठिन किंतु जीवत है जितनी तोरा डोरा की ......दिन भर की तोड़ देने वाली भागम भाग के बाद कुछ एक फूलों के बदले का वो सौदा याद आता है जो उम्र के एक पड़ाव पर हर कोई करता है...वहां से तोरा डोरा तक की यात्रा ...... मैं वाकई मजबूर हो कर ये मान लेता हूँ की ..नियति जीवन की यही है ......हर रात चढ़ना और फिर उतरना .....जैसे मन्दिर के पुजारी को भगवान की आरती के शब्द घिसे हुए लगें वो उसी लय मैं सुर मैं शुरू हो जाता है शायद पूजा से उसका इतना ही सरोकार है की जैसे सुबह उठ कर मैं दाढ़ी बनता हूँ .......वो आरती करता है ........हम सब लादेन हैं जीवन के धर्मयुद्ध मैं ...अपनी तरह से चलने और उसी तरह से दूसरो को चलाने के हथकंडे हमारे भी कम नहीं उन्ही शर्तों पर हम तोरा डोरा मैं भटकते हैं ...परेशां हो कर भी ऍस दंभ मैं जीते हुए की लादेन अमर अजर है हमरे भीतर बाहर .......और सबसे बड़ी बात..... वो सही है.....भले उसे तोरा डोरा मैं भटकना पड़े.......या लीबिया मैं छुपना पड़े ।

आज फिर भी ठीक हूँ ।

यात्री (सम्भावना मैं )

Monday, July 14, 2008

यात्रा की yatna

कल से कौन इस बाग को रंगी बनाने आएगा,

कौन फूलों की हसी पर मुस्कुराने आएगा ,

कौन जागेगा कँवल के नाज़ उठाने के लिए

चांदनी रातों को जानो पर सुलाने के लिए। ये उस शायर का कलाम है अवअल तो चिंता है जिस ने अपनी सर जमी पर एक उम्र गुजारी......और मैं क्या हूँ .

..रुख हवाओं का जिधर का है ,उधर के हम हैं

अपनी मर्ज़ी से कहाँ के और किधर के हम हैं .......

..सोच कर रोने का मन करता है की .....२० साल से इधर उधर भटकते आदमी को क्या बताना चाहिए की वो कहाँ का है,,,मैं मैनपुरी का हूँ ..देल्ही वालों के लिए आगरा का ..कुछ के लिए बांदा का जहाँ से मरे परेंट्स है..उन्हें भी सालों साल ये याद नही आता होगा ही वो बांदा के हैं ...नया ठिकाना या यूँ कहें पहचान का घर bareilly बन गया जिसे मैं कभी भी अपना नहीं manpaata हूँ ..यूँ ही १० साल लखनऊ मैं कट गए ..मेरी ससुराल भी वहीं हैं कभी विद्रोही हो कह देता हूँ की लखनऊ क हूँ बड़ा ठंडक मिलती है ...लोगों ने मुझे कहीं से जोड़ कर नही देखा ... यात्रा तूने जो मेरे akshk को bivaiyan दी हैं वो मुझे सोने नहीं देती हैं ....मुझे वहां जाना है मैं जहाँ का rehjaunga और बरसों बरस जहाँ reh कर कुछ कर sakun ga ...talashun ga .....शायद एक और यात्रा ...यहाँ से .....

.....तुम्हारे दिल तक......जहाँ का मैं शायद ...hun

yatri ......फिलहाल ...yatna main

Friday, July 11, 2008

icecream vs mango

All of a sudden at round about 10.30 pm i decided to eat ice cream after dinner,i took my newly purchased car ,it is important to quota newly, i was driving as smooth as kailash kher was singing saiyan....तू जो छूले प्यार से ,आराम से मर जाऊँ मैं,....बन के माला प्रीत की ....झर जाऊँ मैं तेरे नाम पे
सैयां .....my cell started dancing on dashboard of my car ...oh it was kuki ....my friend ....he is frustrated due to the emancipation of his eve,....so many reasons he told ,not to be top up here,,,,
i fund him in intense trouble.....no equilibrium on Clay courtyard of his home....and i know ..even he knows it can never be bring in to balance....यहाँ दरख्तों के साये मैं धूप लगती है .........as it is 11.15 now i hardly hope to get icecream...but still kailash is singing different song and i m driving....thinking for myself ....it happened always in life when i wished for ice cream and i got mangoes....parlors are closed and my priority became to go for long drive ,this way we change our priorities ....what brought me out n what i m going to get...this happens with u n with me.....life is exactly like this ..... i left ice cream 21 km behind ...increased the volume..
..deewani तेरी deewani .tune क्या कर dala ......hori han ri तेरी दीवानी ...i stopped my car under a bridge
a vendor was counting his earning.....i asked kya hai.....dashehri है लेंगे ..घर खali हाँथ कैसे जाता क्या जबाब देता ....आम लिए ....घर आया १२.१० हो चुका था ....आम khay स्वाद उस यात्रा का मुह मैं था जो की थी ice cream को तो भूल ही चुका था
thanks ice cream you brought me out.......and mango thank you too .you saved me in..... from emancipation of my eve....sheharyar says

दस्तबरदार (mukt) अभी तेरी तलब से हो जायें
कोई रास्ता भी तो हो लौट के घर जाने का .....

...
सुमति

Thursday, July 10, 2008

Again the same yatra

passing through the days n nights.i debar myself from thinking.a notice is to be issued to myself that thinking over namby pamby issues is not permitted to sumati misra,this really disturb the outer as well as inner system of mine....do the routine work ....as we the people of india do.....wives are for cutting bhindi making parath, teaching munna n munni ,going to sahibram general merchant,purchasing kurta pajama,sadi n some time bra n panties for them n for there children.and they do all this to make man happy,really........yes... this complete business of her is for bread earner except fursat for him...for pretty or bloody him.... yes one more impotent thing they do,which should be written in.... golden words ......as there regular job...... to check sms n calls dialled and received by him...... when he goes to bathroom for fresh after long tiring day....i m not going to make a protest but thinking if i were at north pole because of 24 hour day ...day for job not to come back home where thinking of several issues may cause rheumatic arthritis to our thinking n emotions,,,,,, we the men of india do pass days n nights in same way year to year...this yatra is ours .....jor se bolo.....


फिर किसी राह गुजर par शायद ।
मिल सकें हम फिर ,मगर शायद ।


अगले padav per jahan तूफान कुछ maddam पड़े वहां mulakat ...हो


yatri

Saturday, June 28, 2008

Tarukh

I myself feel incomplet. socialy,emotionaly,mentaly,physically,eduacationly.economicaly and so many otherways.will this blog posting do somthing 'll it complet me .honestly i feel ....it can do alot...but why i should write what the system want's to hear .that is why i came over her....yes this will not work .i want a room in someones life.anyone who can understand my inner yatra ...through which i pass every day,evry min.,that is in search of a humnawa.
एक आग सुलगती है अंदर......
एक दर्द दरकता है भीतर.......
मैं पलकों के अन्दर रोता हूँ ,...
और हर पल मैं कुच्छ खोता हूँ....

मेरी यात्रा के साथी तुम्हारे
यहाँ आने का shukriya