yatra

Friday, November 7, 2008

मुकम्मल था कभी मैं ....

एक दुनिया थी मेरे सामने ,
एक चारागार था ,
हसरत थीं मेरे दिल में.. बहुत ऐतबार था,
सब कुछ मैं पाया करता था सफों में, किताब में ,
डूबा नहीं था तब तलक दुनियावी अजाब में ,
मैं खुशमिजाज था , बहुत अहले कमाल था,
औरों के लिए मैं एक हंसती मिसाल था ,,
मैं बुन्लिया करता था अक्सर khushfamiyon के जाल ,
और नज़रों मैं अपनी रखता था पैगम्बरी ख्याल ,
धोखे का नाम जानता ना मक्कारियों की चाल,
मेरे जेहन को छेड़ते थे मखमली ख्याल ,
एक रौशनी सी देखता था हर सुबह में मैं ॥
और चांदनी संभाल ता था दस्तरस मे मैं..
लेकिन तुझे ऐ जिंदगी किसकी नज़र लगी ..
lekar के चन्द नोट क्यूँ ..... तू गई ठगी
सब कुछ दिया तूने .. मगर अपने हिसाब से
सफे शुरू के फाड़ दिए .. क्यूँ किताब से ॥
sumati