yatra

Tuesday, November 13, 2018

ख़ार ख़ार पैरहन

दर्द ये है कि शहर वीरान है
खूबसूरत मंज़रों का रास्ता बेजान है
हम बड़ी मुश्किल में पहुंचे हैं यहां रश्क ऐ कमर
तू कहाँ है सोचकर ये जी  बड़ा हलकान  है

 जब  गर्दिशे गुज़रीं हमारी तरबियत पर बारह 
 तब ये जाना बाप होना भी कहाँ आसान है
बिन बुलाये हम गए थे उसकी महफ़िल में गलत 
बढ़ती हुई है उम्र अपनी और वो अभी जवान है
ख़ाकसारी सूरतों पर इस तरह से दर्ज़ है कि
मुस्कराहट भी यही कहती है तू परेशान है

जान की कीमत सही मिलपाये ये मुमकिन नहीं
है दुकनदारी  बहुत , नीयत बड़ी बईमान है

वो खोज लाएंगे तुझे कि दार फिर गुलज़ार हो
ज़ख्म ऐ माझी से अभी तक यार भी  अनजान हैं
उसपर दर्द ये है कि शहर वीरान है
सुमति 


Friday, October 26, 2018

क़ज़ा

मौत का दिन भी
कैसा दिन होगा 
चल के जाऊंगा उस तक 
या धर दबोचेगी किसी मोड़ पर 
गिरेगी बिजली या 
यूँ ही सांस उखड़ जाएगी 
रूह कांपेगी या ठहर जाएगा ये मन 
आँख में आखरी तस्वीर किसकी होगी 
और जुबान पर वो नाम आखिरी क्या होगा 
आखिरी वक़्त की वो आखरी तमन्ना क्या होगी 
आखिरी लम्हें कितनी देर तक आखिरी होंगे 
इस नाम की क्या कोई पहचान बचेगी 
सूरत राख होने के बाद भी ...

मौत के बाद भी क्या शिकवा बचेगा कोई 
खाली बैठूंगा या करूँगा कारोबार कोई 
या यूँ ही गुम हो जाऊंगा हवाओं मैं 

कोई रिश्ता जुड़ेगा किसी से मिटटी होने के बाद भी 
या यूँ हि निशाँ मिटजायेंगे मिट्टी होते ही 
या हवा होजायेगी पहचान सारी 
वो मौसम क्या होगा 
दिन होगा की रात होगी 
धुप होगी या बरसात होगी 
खारे पानी की 



कुछ भी तो नहीं मालूम 
मालूम है तो बस ये की 
जब मैं आखिरी सांस तक पहुँचूगा 
वो सांस मैं तुम से लूंगा 
आखरी वक़्त मेरे पास तुम होगी 

नहीं मालूम 
मौत का दिन भी कैसा  दिन होगा 
बस इतना मालूम है 
ज़िन्दगी के पहलु मैं मेरी मौत होगी 

सुमति 

Monday, October 1, 2018

तू फ़ना नहीं होगा ये ख़याल झूठा है

एक अक्टूबर ,आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस है . शायद ही हम में  से किसी का ध्यान , ज्ञान इस तरफ गया हो . हमें बताया ही नहीं गया और ही हम अपने बच्चों को बता सके की फ्रेन्डिशप डे वेलेंटाइन डे डॉटरस डे  के अलावा ऐसा भी कोई डे है जिसे International older person day कहा जाता है . पिछला एक साल वृद्ध जीर्ण शीर्ण माताओं ,जो महिला कल्याण निगम के आश्रय सदनों मैं निवासरत हैं ,को देखते सुनते गया है . पिछले साल जब इस दिन मैं वृन्दावन के आश्रय सदन में आया था उससे पहले मैं ये ही समझता था की सफेदी की दुनियां में  रहने वालों के ख्वाब ख्याल और तमनाएँ भी सफ़ेद ही हो जाती होंगी . सफ़ेद सूती साडी में लिपटी रहनेवाली उदास मुख माताएं पर जब एक रास नृत्य करने गोपिकाओं के रूप में आयीं तो वे सब जो भी साज श्रृंगार कर सकती हैं किये रंगबिरंगई चुनरी ओढ़े किसी स्कूल के बच्चों की तरह स्टेज पर चढ़ीं और बेहद सजगता से नृत्य करने लगीं और उसके बाद उन 60 से 70 बरस की माताओं ने स्टेज से जाने से पहले मेरे साथ एक फोटो खिचवाने का आग्रह किया तो बस बर बस मेरी आँख भर आयी अपनी सोच समझ पर ग्लानि होने लगी अपने इर्दगिर्द फैले समाज पर खीज आने लगी कि 
क्यों हम  इस सोच के साथ बड़े किये जाते हैं कि बूढ़ा होना सामने वाले बुजुर्ग की नियति है जिस तक हम हमारे बच्चे कभी पहुंचेंगे बूढ़े होंगे . हम तो उन्ही तमन्नाओं मौज मस्ती और रसूख के साथ जियेंगे जिन के साथ आज जी रहे हैं . हमारे इन्वेस्टमेंट एलआईसी पीपीएफ सिप मयूचुअल फण्ड हमारे बच्चे सब सिक्योरिटी देंगे . शरीर बूढ़ा हो जाता है तमन्नाएँ नहीं . और वो पूरी भी हो सकती हैं तब जब हमारा समाज एक माहौल विकसित करे जिसमें नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की बची  खुची zindgi को पुरे उल्लास और उत्साह के साथ बितवाने की ज़िम्मेदारी ले .
ताकि जब हम उस पड़ाव पर पहुंचें ये हमारे बच्चे वो ही सब करें जो उन्होंने हमें हमारे बुजुर्गो के साथ करते देखा है . इस साल मैं वृन्दावन आश्रय सदन नहीं पहुँच पा रहा हूँ सच मानिये बेहद तकलीफ हो रही है . संतोष मिश्रा जी जो हमारे सदन प्रभारी हैं ने वृद्धजन दिवस के आयोजन के लिए कुछ धनराशि चाही थी ,जैसा की सभी आयोजनों में होता है , किन्तु अफ़सोस और ग्लानि है की मैं उनकी कोई मदद नहीं कर सका और ऐसे में मैं व्यक्तिगत रूप से भी आयोजन मैं पहुँचने की हिम्मत नहीं जुटा सका . किन्तु अगले साल जब सरकार की मितव्ययता की बंदिश मेरे ऊपर नहीं होगी तब मैं एक साधारण व्यक्ति की तरह यथा सामार्थ कुछ एक उपहार लिए आप सब के बीच होऊंगा
आप का सदैव् 

सुमति 

Thursday, September 20, 2018

कबीर

डिमॉक्रेसी हमें सोने की इजाज़त नहीं देती ।किसी भी दौर मैं पलिटिकल anaesthesia किसी 
Democratic ऑपरेशन की पहली शर्त नहीं हो सकती ।अगर हो तो समझना ही होगा की उलटी गिनती गिना कर सियासतदा हमारे सोने का इंतज़ार कर रहेहैं ।लोकतंत्रऑपरेशन table पर पड़ी बीमार व्यवस्था नहीं है जिसे हमेशा multiple operations की ज़रूरत रहती हो मगर ये अफ़ीम सूँघा कर लूटने वाले की ही ग़लती हो ऐसा नहीं है लुटनेवाले भी इतने सालों में इस ज़रायामपेशा क़ौम से वाक़िफ़ ना हो सके तो उन्हें सोने और लुटने से कोई नहीं बचा सकता ,,,,

सुखिया यह संसार है खावे और सोवे । दुखियादास कबीर है जागे और रोवे ।।

बहुत मुश्किल है
की जब तुम सो रहे हो
बतला सको कुछ् भी

सच तो दूर की शैय है
की जब तुम सो रहे हो
सुन सको कुछ भीबदल कर करवटें
मुमकिन है  कि
तुम फिर ख़्वाब ना देखो
मगर ये बंद आँखें
कैसे नुमाया सच करेंगी

ये सिलवटें जो हैं तुम्हारी नींद से पैदा
भला कैसे हटेंगी
तुम्हें कैसे दिखेंगी
की जब तुम सो रहे हो

जो तुम्हारे जागने कि सूरतें
बन्ने नहीं देते
तुम्हें जो ख़्वाब में लड़ना सिखाते हैं 
जो तुम्हें हर बात पर अड़ना सिखाते हैं 
बड़े माहिर बड़े शातिर बहुत पहुँचे खिलाड़ी है

बहुत मुश्किल है
की जब तुम सो रहे हो
हुई क्या साफ़ गंगा किस को दिखलाएँ
ये बिजली गाँव तक पहुँची नहीं है कैसे बतलाएँ

कहाँ तक ख़ुशनुमा वादों को ढोएँ
और कहाँ तक झूठ पर ताली बजाएँ
या तो ये बताओ किस तरह ख़ुद को परोसें
या किस तरह इज़्ज़त बचाएँ
कि जब तलक तुम सो रहे हो
या
हुकूमत के लिखे वे ही सफ़े दोहराएँ
जिन्हें तुम पढ़ते पढ़ते सो गए थे
जिन्हें अख़बार ,चैनल कह रहे थे ।,,,,।

बहुत परेशान हाल हाल हैं तुम्हें कैसे बताएँ
तब अपनी बात इस दौर में
किस को सुनाएँ
कि जब कुछ सोचने के हक़ पे ही पाबंदी लगी है ;:
की सुन्नने को यहाँ कोई राज़ी नहीं है
और सिर पर दूसरी मुश्किल खड़ी है 
कि
बड़ी तादात में अब लोग सोते जा रहे हैं

अब यहाँ कुछ पूँछने का भी चलन बाक़ी नहीं है
वही सच मान लेना है जो होर्डिंग्स पर लिखा है ,

शहर में जब लोग सोते जा रहे है
शहर में उनकी जगह सब होर्डिंग बतला रहे हैं।

मुझे उम्मीद है जब जाग कर के सब उठेंगे
रफ़ू पैबंद सारे हो चुकेंगे
पलक पर बोझ ख़्वाबों का लिए हम
शिकस्ता हाल में बैठे मिलेंगे
कि जब तलक तुम सो रहे हो ।
सुमति 




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Tuesday, August 28, 2018

उनके ही जी की

अपने किये की सजा पा रहा हूँ 
पिए जा रहा हूँ जिए जा रहा हूँ
नज़र से नुकीला दिखा जो शहर में 
जिगर के लिए मैं लिए जा रहा हूँ 
तमाशा बनाना कोई उनसे सीखे 
मैं उनके ही जी की किये जा रहा हूँ 
खरामा खरामा लगी ख़त्म होगी 
मैं खुद को तसल्ली दिए जा रहा हूँ 
कहीं लुत्फ़ उनका पड़े कम ग़ालिब 
मैं गलती पे गलती किये जा रहा हूँ 
तराशा बहुत बुतशिकन ने है खुद को 
अपनी बीनायी उसको दिए जा रहा हूँ 


सुमति 

दर्द शहर

अब कभी इस शहर से मिलना नहीं होगा
किया रुखसत खुदी को खुद की चाहत से
खुले ज़ख्मों का अब सिलना नहीं होगा .

जिन्हें आदत है मिलने और बिछड़ने की
हैं जिनकी फितरतें हर शै बदलने की
दिल्लगी मुख़्तसर सा रिवाज़ जिनका है
रो के हंस देना मिजाज़ जिनका है
ऐसे हमसफ़र के साथ अब चलना नहीं होगा .

इस शहर मैं हर सिम्त तनहा रास्ते क्यों हैं
हर ओर क्यों वीरानगी के चश्मे पुरसू  हैं
हैं भीड़ के मुँह पर जमी खामोशियाँ कैसी
हैं शोर के आलम में भी तन्हाहियाँ कैसी
ये कौन लोग हैं और क्यों आतिश जलाये हैं
करे हैं जश्न क्यों और किस लिए खुशियां मनाये हैं
इनके लिए अब खुद को बदलना नहीं होगा

इस शहर को शायद ही हो अंदाज़ जरा सा
मैं छोड़ रहा हूँ इसे  एक बन के तमाशा
इस गली से इस दर से अब निकलना नहीं होगा
टूटे हुए चिराग का जलना नहीं होगा
अब कभी इस शहर से मिलना नहीं होगा

सुमति

Wednesday, August 8, 2018

प्लूटो

मैं खुद को ढूंढने गया 
बहुत दूर तक गया 
निकल कर भीड़ से देखा 
हटा कर आसमान देखा 
ज़मीन के नीचे भी झाँका 
और लगायीं भी कई आवाज़ 
लगा न हाँथ कुछ भी 

ये यक़ीनन शोर करते लोग  
वज़ूद  टिकने नहीं देते 
लगा फिर यूँ कि मैं 
हुआ करता था जिन सफों में
अब उन सफों की दुरुस्ती हो रही है

जहाँ मैं दर्ज प्लूटो सा कभी था 
वहां से  नाम खारिज हो चूका है

>&*<$#
सुमति     


Thursday, July 26, 2018

चल सपनोँ से दूर चल



टूटे हुए दिल
 बिच्छड़े हुए लोग
ग़मज़दा सोहबतों की
बात कर

राहत की उम्मींद न दे
बैचेनियों की
बात कर


आस्तीनों में आँख रख
रोने धोने की
बात कर


भूल जा कोई
मिलने आयेगा
जो है उसे भूलने की
बात कर


जिसने छोड़ा है
यक़ ब यक़ ज़िंदगानी को
उससे न मेहरबानी की
बात कर


वो दौर था
वो जब शोर सा
दौडता था रगों में
चल अब भूल कर वो सब
कज़ा को बुलाने की
बात कर

टूटे हुए दिल
चल बात कर
 सुमति 

Monday, July 23, 2018

बे बंदिश सड़क पर

घर तो नहीं जहाँ जाना चाहूँ 
और इस सड़क की  अपनी ही  बंदिशें हैं 
कहाँ मैं पहुँच  जाऊं 

गुज़र ऐसे  वैसे नहीं 
ज़िन्दगी ठहर  जा 
जाकर कहीं 
कोई  एक बार की मुश्किल हो तो गुज़ार लूँ मैं 
हर शाम सड़क की बंदिशों का क्या करूँ मैं 

कभी धोखा भी न हो और 
भटक जाएँ उस ओर वहां 
वीरान तन्हाइयों के हैं शोर जहां 
जहां रहती नहीं उम्मीद कोई 
और मिलती नहीं ताबीर कोई 
बस टूटे हुए ख्वाबों की किरचने बिखरी हैं 
पैरों में चुभती हैं , आँखों मैं गड़ती हैं 
दिल ओ दिमाग में घुस जाती हैं 
शाम होते ही जिगर को लहू रुलाती हैं 


इस शहर मैं एक घर तलाशता हूँ मैं 
हर ओर चीखता चिल्लाता भागता हूँ मैं 

रह रह के कोई कान 
में कहे जाता है 
अबे दिल रे 
घर से मिल रे 
या निकल ले ज़िंदगी से  

बे बंदिश सड़क पर 

सुमति